Saturday 15 July 2017

समय गठरी होता ना तो बांधकर लाद देते कांधे पर

भीगने के लिए जरूरी थोड़ी होता है कि खूब बारिशें हों। हल्की-हल्की बौछारें भी तो कभी-कभी भिगो देती हैं गहराई तक। काँच के दरवाजे को किसी उम्मीद से हल्का सा धकेलते हुए अंदर पैर रखते हैं तो कमीज पर मंडी बूँदों को देखकर कोई पूछे कि तुम तो भीग गए। तो चेहरे पर मुस्कराहट तैर जाती है, हां मैं भीग गया पूरा।
बैठते हुए आँखें देखी और भीगते-भीगते डूब गया। कुर्सियों के चारों तरफ कितना कुछ मांडा हुआ था। सबमें दिख क्या रहा था वही ना जो देखना था। जो भिगा रहा था। और देखते हुए माथे पर क्या महसूस हो रहा था, बरगद पर से अटकी हुई बूंदें झरकर माथे पर गिर रही हों जैसे।

नदियाँ कितनी दूरी तय करती हैं ना। भीगने के लिए दूरियां क्यों आड़े आएंगी। नदियाँ तो बारिशें नहीं होती ना। बारिशें कभी-कभी मुँह फेर लेती हैं। लेकिन नदियाँ जब भी बहती सब कुछ भिगोते हुए चलती। सड़क के किनारे उन चार पीले पत्थरों के पीछे की जमीन जब भीगती तो कैसे सबकुछ हरा-हरा हो जाता। उन पत्थरों के पास से गुजरती हवा में कैसी नमी होती है। हवा भी नम होती है क्या दुःखांत कहानियों के लिए और वो भी सालों बाद तक। पर नमी में जाने कौनसा सुकून है जो हर वक्त भिगोता रहता है। उन कहानियों का प्रेम शायद हवा में घुला रहा गया था बरसों बाद भी।

जैसे भीगना बचा रह जाता है सालों-साल तक। उजाला खत्म होता है और अंधेरा हँसने लगता है। भीगने की महक कुरदने लगती है कुछ घंटों बाद ही। समय गठरी होता ना तो बांधकर लाद देते कांधे पर और छिड़कते रहते हर महक के साथ छींटे बालों में।

हैरानियाँ होती हैं ना यूँ भीगने पर। कि सब बुनते होंगे कहानियाँ और हँसते होंगे। पर भीगने का जो सुख होता है वो अंधा होता है अगर अंधा नहीं भी होता है तो बन जाता है। सोते-सोते करवट बदलकर बालों में हाथ फिराओ तो भीगने की महक फैल जाती है। होंठों पर हंसी तैर जाती है। और खिड़की से लगता है हवा का झोंका आया हो कोई किसी चश़्मे को छूकर। किसी ज़ादूई चश़्मे को छूकर। ज़ादूई 🌿

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