Saturday 13 May 2017

बंजारे जी उठे सुनकर कहानियाँ

बंजारे जी जाते थे तपते जेठ के दिनों में जब जाळों पर छाए होते पीलू और खेजड़ियों पर खोखे। पंछी गाते और जिनावर सोते थे। दिनों में जब पेड़ों के नीचे धूप काढ रही होती कशीदे तब पेड़ों की छाँव में कहानियाँ बन जाती थीं औषधियाँ।

तेज धूप जब ढक जाती थी बादलों की छांव में। जब बोलने लगते मोर टहनियों से निकालते हुए कलंगी वाली गर्दनें। जब पेड़ों पर लटक रहे होते पीलू खाते बच्चे। अधेड़ कूट रहे होते पते कोटड़ी में। बकरियां खा रही होती खेजड़ियों के नीचे खोखे। बच्चे ऊंघ रहे होते डाखणी हवा वाली खिड़कियों के नीचे। औरतें बुन रही होती रालियाँ। तब बंजारे पी रहे होते कहानियों की कच्ची शराब।

 जैसे अाज की कहानी, किसी पुजारी के वादे की। कहानी बरसात के मौसम की। कहानी काळ के डर की। जमाने का तीसरा महिना यानि की अगस्त। रूई के फाहों से बादल उपड़ आते दोपहरों में और शाम तक लौट जाते बिन बरसे। आस खो चुके किसान और ग्वाळ कातर नज़रों से हर शाम तकते आसमाँ। रेगिस्तान के अंतिम छोर का कोई गाँव। बरस उन्नीस सौ तिहत्तर, या बंजारों की कहानियों की बोली में कहें तो तीसा यानि विक्रम संवत 2030 के दिन। आईनाथ जी के मंदिर में धूंप जल रहा है, पुजारी जी मंदिर से निकलकर अपने घर जा रहे हैं। पुजारी जी जो गाँव के स्कूल में पढ़ाते भी हैं। गांव के लोग खूब मानते माड़साब्ब को। सुबहों को छाछ दोपहरों को केर-सांगरियाँ और रातों में ठंडे पानी के मटके भरकर गाँव के लोग पैरों पर खड़े रहते हर वक्त माड़साब्ब के लिए।

 एक दिन माड़साब्ब मंदिर से निकले ही थे कि गाँव का एक भील काळ से डरा हुआ पुजारी जी को मिल जाता है, गिड़गिड़ाने लगता है गुस्से में। आप कैसे पुजारी हैं जो बारिश नहीं करवा सकते। बता दीजिए अब कब होगी बारिश। पुजारी जी एकदम से चुप्प। पूजा-पाठ, चौघड़िया-बिघड़िया, मुहूर्त तक तो ठीक है अब बारिश कहां से करवा दें। फिर भी बोल दिया कि कुछ दिन बाद होगी बारिश खूब। तब तक में उपवास रखता हूं। अब माड़साब्ब ने बोल तो दिया पर बारिश कहां से करवाएंगे। आईनाथ जी का भोपा माड़साब्ब के एकदम खास आदमी। माड़साब्ब आप भोपे रा खेळा। आते ही पूछा कि मैंने तो ऐसे बोल दिया बारिश का और रख दिया उपवास अब क्या करें। भोपे ने अगरबत्ती जलाकर आखे लिए और हंसते हुए बोला आज से बारिश होने तक मेरा भी उपवास। और ग्यारहवें दिन बारिश होगी।

 दूसरे दिन तेज धूलभरी आंधी शुरू हो गई। स्कूलों की छुट्टियों के दिन। भोपा और माड़साब्ब दोनों सुबह छाछ पीकर पूरा दिन निकाल देते। आठवां दिन चढते-चढते माड़साब्ब के बीछणी होने लगी बादलों का तो कोई नामोनिशान ही नहीं बारिश कैसे होगी। उतरे चेहरे से भोपे को देखा भोपे ने कहा बारिश होगी चिंता मत करो। ग्यारहवें दिन की दोपहर बीतते-बीतते आंधी रुक गई और उमस होने लगी। ओतरे कूंट में काळ्याण उपड़ने लगी और आंधी के साथ तेज बारिश। तीन घंटे बाद बारिश ज्यों ही रुकी सामने की मकान से दादी हाथ में थाली और छाछ का जग भरे निकली। थाली में केर-सांगरी, फुलके और कोळियो। माड़साब्ब ने हंसते हुए आईनाथ जी को धोक दी और बात रखने के लिए धन्यवाद दिया। भोपा आंखें बंद किए बैठा था। पच्चीसे के काळ से डरे किसान और चरवाहे खुश हो गए थे तीन महिनों बाद।

 कहानी खत्म होते-होते दोपहर खत्म होने को थी। चांरे की खिड़की से आती हवा बंजारे को छूती और बंजारा उंघने लगता। आज कहानी सुनने के लिए बंजारा जाने कितने दिनों बाद जागा था दोपहर में।


3 comments:

  1. की कों तनों, जीहे सुमेरा

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  2. आज मैं आपके ब्लॉग पर आया और ब्लोगिंग के माध्यम से आपको पढने का अवसर मिला 
    ख़ुशी हुई.

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  3. आँखों देखी मेरी भी पसंदीदा फिल्मों में से एक हैं।

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