Friday 19 May 2017

बुलबुल तिल ढूंढ के दो ना

बरस चले जाते थे और दिन लौट आते। दिनों के लौट आने पर दिख जाते थे वो शब्द जो बरसों के चले जाने पर रह गए थे ड्राफ्ट में। ड्राफ्ट जाने कितनी कहानियों को छुपाए रखते हैं।
किसी के ब्लॉग पर कई ड्राफ्ट पड़े थे खाली, जिनके सिर्फ टाइटल लिखे थे। और हर टाइटल के साथ लिख रखा था नाम। जैसे एक टाइटल ये था 'बुलबुल तिल ढूंढ के दो ना'।
बुलबुल क्यों तिल ढू्ढ के देगी। ये उन बरसों के दिन थे जब वो अजीब से सपने देखकर जाग जाता था। एक नाम गूंजता था सपने में, एक तिल दिखता था और बरगद पर उड़ती रहती थी बुलबुल। एक दिन उसे लगा सपना सच हो गया।
उसने लिखा "वह सोचता है कि जिस दिन रेगिस्तान से उसका प्यार गलत साबित हो जायेगा उस दिन उसकी सच्चाई के सारे माले ध्वस्त हो जायेंगे। और सब मालों के नीचे दबी कराह रही होगी उसकी आत्मा। पर वह जानता है कि किसी भी कीमत पर उसकी आत्मा एवं रेगिस्तान के प्रति प्रेम झूठे नहीं हो सकते।"
वही नाम उसके मन में गूंजा और किसी के दिखने से पहले दिखा तिल चमकता हुआ। प्यारे से होठों और नाक को छिपाता हुआ तिल। वह देखता रहा घंटों तक तिल को। जैसे नशे में था। उसे लगा कि माल फूंक लिया और धीरे-धीरे खुदपर से काबू खोता जा रहा है वो।
उस बरस खूब बारिश हुई रेगिस्तान में। रेत के बीचोबीच पानी उछलता रहता। पंछी आते और गर्दन पानी में डुबाकर पानी उछालते। उसने पंछियों के साथ कूदते हुए पाँव डुबा लिए पानी में और खेजड़ी पर फाख़्ता के जोड़े के पास लहराते सांगरियों के गुच्छे को देखता रहा।
उस बरस हर मौसम वो खुश रहा। हर मौसम कुछ न कुछ सीखता रहा। एक रात तो उसने सोचा कि वो सीख लेगा अंग्रेजी। और कोशिश भी की।
उन सर्दियों वो दही में चूरी बाजरे की रोटी खाते हुए छाजड़े से साफ होते मूंगों को देखता रहता दोपहरों में। वह किताबों के बीच से मुस्कराते हुए झांकता रहता। बारिश के दिनों में उसने ये सारे सपने देखे थे। सर्दियों और गर्मियों में जीता रहा इन सपनों को।
वो शहर में होता तो रेत होता और रेगिस्तान में होता तो भी रेत ही होता। शहर में होकर रेत होना गर्मियों में पत्थर के मकानों के ठंडे होने जितना ही मुश्किल है।
वो दोपहरों में बरगद और बुलबुल से बातें करता रहता। किताबें जो सवाल छोड़तीं उनके जवाब बरगद से मांगता और सवाल सुनकर हंसती रहती बुलबुल।  वो चिढ जाता तो तेज आवाज़ में गाने लगता गीत बेसूरे और गीत सुनकर बरगद बंद कर देता झूमना, बुलबुल भाग जाती कानों पर रखके हाथ। वो हंसने लगता तो बदल जाता मौसम और होने लगती बारिश। बरगद पत्तों पर ठहर गई पानी की बुंदों की ठंड से सिहरने लगता बुलबुल चोंच से पत्तों को झुमाने लगती। वो बरगद के टहनियों पर फेरने लगता हाथ। बुलबुल उसकी अंगुलियों पर चोंच मारकर अठखेलियां करते हुए चूमने लगती। वो हंसते हुए बरगद और बुलबुल से विदा लेता तो दोनों खूब सारी दिखावटी बददुआएं देते।
फिर बदल जाते मौसम। मेट्रो स्टेशन पर छूट रहे होते हाथ। शहर का हर चेहरा जेसे खींच रहा उसके अंदर से सांस। वो तड़पने लगता। वो सवाल पूछने लगता कि रेगिस्तान शहर में आकर रेत छोड़ देता है क्या? रेत के रहते रेगिस्तान झूठा नहीं हो सकता।
वो भाग आता फिर उस जगह जहाँ पाँव डुबोये थे। पसीने से तरबतर। खेजड़ी की सूखी झूलती टहनियों के आगे मैदान में पानी देखकर वो आंखें बंद करके भागने लगता और छलांग लगा देता पाँव डुबाने के लिए। घुटने छिल जाते सूखी मिट्टी में घिसकर। पतली धारों में घुटनों पर से खून निकलने लगता। दूर-दूर तक कोई पंछी नहीं। पानी नहीं मृगमरीचिका थी वो। वो घुटनों के दर्द को दबाते हुए भागकर बरगद और बुलबुल से सवाल करने पहुंच जाता। सूखकर सफेद हो चुका बरगद और चुप्पी ओढे बैठी रोज गाने वाली बुलबुल से वो बेहोश सा पूछता कि प्रेम मृगमरीचिका है क्या? जवाब कुछ नहीं होता दोनों कब के बेहोश हो चुके थे।
टूटते तारों को देखकर वो पागल होने लगता और उस तारे की तरह सब तारों से दूर होने लगता। अपनी दुनिया में। दो मौसमों के लिए उसने खुद के लिए एक अलग दुनिया बना ली। कई मौसमों बाद जब बारिश हुई तो बरगद हरा हो गया और गाने लगी बुलबुल। उसने चुपके से कहा बुलबुल तिल ढूंढ दो ना।
और बुलबुल उसे सपनों में फिर से तिल दिखाती। कभी गले को ढकता तिल तो कभी गालों को ढकता तिल। हर बार तिल देखने के बाद वो घुटनों पर हाथ फेरता जैसे कि खून रिस रहा हो। और वो बेतहाशा चूमने लगता फाख्ता को भूलने के लिए घूटनों को।

•छूटी हुई कहानियां कभी ढंग से पूरी नहीं होती।

आह को चाहिए इक उम्र...


यार ये मई का महिना है

यार ये मई का महिना है
दिन तपते हैं ठरती हैं रातें
 सुबह छत पर मोर नाचते हैं
 दोपहर जाळों के नीचे होती हैं गायें
 शाम को उत्तर से उठता है बवंडर।
 यार ये मई का महिना है
 क्यों कहते निर्मम महिना है
 लू और तपत से जलाने वाला
 पसीने से तरबतर कर देने वाला
 उमस और आंधियों का महिना।
 यार ये मई का महिना है 
 मैंने खिड़की में पाँव रखे थे
 बरगद को छूकर आती हवा
जाळों पर उगे लाल-पीले पीलू
 खेजड़ियों से झड़ते खोखे
 टूळों पर लटकते पाके।
 यार ये मई का महिना है
 ये मेरा महिना है
 मैंने खुद को जलाने की चीजें चुनी नहीं
 ना ही पत्थर चुने और ना ही वायरों का हवा-पानी।
 यार ये मई का महिना है
 कपड़े सिली बोतल का पानी पीना है
 डाखणी खिड़की की हवा में सोना है
 शाम को ठाढकी रेत में फिरना है
 ढळती रात में कांगसिया बजाना है।
 यार ये मई का महिना है
 बोला ना मेरा महिना है...

Tuesday 16 May 2017

हवा के गीतों पर झूमती गेहूँ की बालियाँ

मुझे कविताएं बहुत पसंद है। और उससे भी ज्यादा पसंद है कविताओं को नए तरीके से पढ़ना। छपी हुई कविताओं को पढ़ने से घटती हुई कविताएं महसूस करना ज्यादा सुखदायी होता है। या फिर पढ़ी जा चुकी कविताओं को ही घटते हुए महसूस करना। जैसे मैं किसी निर्माणाधीन इमारत के पास चला जाता हूं और महसूस करता हूं नरेश अग्रवाल की ये कविता-
"तुम हँसते हुए  
काम पर बढ़ोगे
और देखते ही देखते 
यह हँसी फैल जायेगी 
ईंट-रेत और सीमेंट की बोरियों पर 
जिस पर बैठकर 
हंस रहा होगा तुम्हारा मालिक।"





मैं बैठ जाता हूं किसी छोटी सी रेगिस्तानी पहाड़ी पर जाकर केदारनाथ अग्रवाल की इस कविता को समझने और महसूस करने के लिए-

"जहाँ से चली मैं 
जहाँ को गई मैं- 
शहर, गाँव, बस्ती, 
नदी, रेत, निर्जन, 
हरे खेत, पोखर, 
झुलाती चली मैं। 
झुमाती चली मैं! 
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूं"।


मैं ऐसे ही सुकून भरी कविताओं को महसूस करने के लिए यात्राएं करने के सपने देखता हूं। कोई चुप्प सी यात्रा। बिना कुछ जाने बिना कुछ किसी से पूछे। ऐसी यात्रा जो सिर्फ मेरी यात्रा हो। मेरे महसूस करने को कोई महसूस न कर पाए ऐसी यात्रा।
पिछले दिनों में हिमाचल में था। मई-जून के महिने में हिमाचल जाने का पहला कारण हर किसी का यही होता है वहाँ ठंडक होती है। मैं समूद्र तल से 230 मीटर ऊंची तपती दोपहरों वाली जगह से ठंडी 2100 मीटर ऊंचाई वाली जगह था। जैसलमेर से धर्मकोट तक कि यात्रा में पठानकोट तक 24 घंटे की यात्रा उंघते हुए बीती। और फिर पठानकोट से निकलते-निकलते आँखें खुलनी शुरू हुई जो खोती गई सुंदर कविताओं में। पतली-पतली सड़कें, दोनों तरफ छोटे-छोटे गेंहूं के खेत, ऊंचे पहाड़। मैंने बहुत सारी कविताओं को महसूस किया इस यात्रा में।




इस यात्रा में जो चीज सबसे अच्छी लगी वो थे गेहूँ के खेत। छोटे-छोटे खेतों में लहराती गेहूं की बालियाँ ऐसे लग रही थीं जैसे हवा के गीतों के साथ नाच रही हों। मैं धरमकोट में जिस कमरे में रुका हुआ था उसके ठीक नीचे एक छोटा सा खेत था जिसकी बालियाँ हवा में लहराती रहती थी। मैं सिगरेट पीने बाहर निकलता तो लम्बी देर तक लोहे की जाली पर हाथ टिकाए सुनहरी बालियों को देखता रहता। सीढ़ीदार खेत बहुत छोटे-छोटे होते हैं। मैं रास्ते भर सोचता रहा कि कितने प्यारे हैं ये खेत, मैं भी घर के पास एक ऐसा छोटा सा खेत बना दूंगा जिसमें हमेशा कुछ उगता रहे।








मक्लिओडगंज के पास एक छोटी सी झील है, डल झील। धर्मकोट से इस झील तक पैदल रास्ता बहुत सुंदर है। घने पेड़ों के बीच से गुजरते हुए महसूस होता है जैसे आँखें बंद किए चल रहे हों। चारों तरफ शांति और पेड़ों के बीच से आती झींगूरों की आवाजें। इस रास्ते के बीच में बताया गया कि बीच में एक जगह पहाड़ी कुत्ते हैं ध्यान रखना। इन पेड़ों के बीच से गुजरते हुए जो महसूस हुआ वह मंगलेश डबराल की इस कविता से समझा जा सकता है-
कुछ देर बाद
शुरू होगी आवाज़ें
पहले एक कुत्ता भूँकेगा पास से
कुछ दूर हिनहिनाएगा घोड़ा
बस्ती के पार सियार बोलेंगे
बीच में कहीं होगा झींगुर का बोलना
पत्तों का हिलना
बीच में कहीं होगा
रास्ते पर किसी का अकेले चलना
इन सबसे बाहर
एक बाघ के डुकरने की आवाज़
होगी मेरे गाँव में।






मैंने सुना था हिमाचल के रास्ते डरावने हैं। मुझे इन रास्तों से गुजरते हुए एक बार भी डर नहीं लगा। छोटे-छोटे रास्ते। उन रास्तों पर से चढ़ती-उतरती गाड़ियाँ, ढलानों पर पशुओं को हांकती लड़कियां, रास्तों से बहुत नीचे बसे गाँव। पहाड़ों पर चढ़ते-उतरते हुए हर बार मुझे आँखों देखी फिल्म याद आती रही। मेरा सत्य वही होगा जिसे मैं महसूस करूंगा, कुछ अनुभव अभी भी बाकि हैं जो कि सिर्फ सपनों में भोगे थे। जैसे कि ये सपना मुझे बार-बार आता था कि मैं हवा में तैर रहा हूं पक्षी के जैसे।






यहाँ के लोग भी मुझे किसी कविता से लगे। चुपचाप पना काम करते हुए। आते-जाते हुए। शायद नई जगह के लोग होने के कारण मुझे ऐसा लग रहा है। सड़क पर गुजरते इस बुजूर्ग की तस्वीर देखिए या खच्चर ले जाते इस आदमी को या फिर इस राहगीर को। मुझे लगा कि से पूछूं कौनसे देश से हो पर फिर मन ने कहा कि तुम बिना सवाल-जवाब कि यात्रा के हो तो पूछा नहीं।












दूर तक ऊंचे-ऊंचे हरे और सफेद पहाड़। ऊपर की चोटियों पर गर्मियों में भी बर्फ दिख रही है। पेड़ों की लम्बी कतारों पर सुबह-शाम सूरज डूबने और उगने के रंग उतरते हैं। किसी कोने में कोई अकेला खड़ा पेड़। शाम को छोटी-छोटी चीजें जब सूरज पीछे चला जाता है तो निखरने लगती हैं।









पराशर झील धर्मशाला से छह घंटे की दूरी पर है मंडी के पास। मुझे इस यात्रा में गेहूँ के खेतों के बाद अगर कोई जगह सबसे अच्छी लगी तो वो थी इस झील के पास एक पहाड़ी। यहाँ पराशर ऋषि का मंदिर है। इस झील के अंदर एक छोटा बगीचा है जो तैरता रहता है। मंदिर में स्थानीय लोगों की भीड़ थी शायद यहाँ पर्यटक बहुत कम ही आते होंगे। मंदिर के आस पास लकड़ी से बहुत ही सुंदर कमरे बने हुए हैं। झील देखने के बाद पास की एक पहाड़ी पर चढ़े।वहां एक तार थी जिसके दूसरी तरफ छोटा सा कमरा दिख रहा था। वहाँ की हवा ऐसी थी कि बैठे रहें बस हिलें ही नहीं। दो पहाड़ियों बीच से आती ठंडी हवा और आसपास दिखते सफेद बर्फ से ढके पहाड़। भेड़ों का हांकता चरवाहा, पहाड़ों के बीच गोते खाते पंछी। मेरे लिए ये जगह बिल्कूल वैसी ही थी कि कुछ अनुभव अभी भी बाकि हैं जो कि सिर्फ सपनों में भोगे थे।

















मैं धरमकोट में रुका था। इसे छोटा इजरायल भी कहते हैं। मकलिओडगंज से थोड़ा सा आगे शांत और छोटा सा गांव है। यहाँ से कांगड़ा वैली और धौलाधर रेंज दिखते हैं। भीड़भाड़ से दूर शांति से रहने के लिए धरमकोट बहुत ही प्यारी जगह है। मैं मिस्टिक लोटस होटल में ठहरा था और इस होटल में ज्यादातर ऐसे लोग थे जो तीन-चार महिनों के लिए यहाँ रुकने आए थे। यहाँ रास्तों में अकेले फिरते हुए ऐसे लगता है जैसे हर चीज कविता कह रही हों। पेड़ों के बीच से रोशनी बिखेरता सूरज, पत्थर पर खिलता अकेला फूल, पास में बैठा उबासी लेता कुत्ता, स्कूल में खेलते हुए थककर सीढ़ियों पर बैठे बच्चे।


















मैं फिर से इन तस्वीरों को देखता हूं तो ऐसे लगता है जैसे मेरे किसी प्रिय कवि की कविताएँ हैं जिन्हें मैं बार-बार पढ़ता हूं। इन सामने घटती कविताओं में सुख है महसूस करने का पास बैठकर।

Saturday 13 May 2017

बंजारे जी उठे सुनकर कहानियाँ

बंजारे जी जाते थे तपते जेठ के दिनों में जब जाळों पर छाए होते पीलू और खेजड़ियों पर खोखे। पंछी गाते और जिनावर सोते थे। दिनों में जब पेड़ों के नीचे धूप काढ रही होती कशीदे तब पेड़ों की छाँव में कहानियाँ बन जाती थीं औषधियाँ।

तेज धूप जब ढक जाती थी बादलों की छांव में। जब बोलने लगते मोर टहनियों से निकालते हुए कलंगी वाली गर्दनें। जब पेड़ों पर लटक रहे होते पीलू खाते बच्चे। अधेड़ कूट रहे होते पते कोटड़ी में। बकरियां खा रही होती खेजड़ियों के नीचे खोखे। बच्चे ऊंघ रहे होते डाखणी हवा वाली खिड़कियों के नीचे। औरतें बुन रही होती रालियाँ। तब बंजारे पी रहे होते कहानियों की कच्ची शराब।

 जैसे अाज की कहानी, किसी पुजारी के वादे की। कहानी बरसात के मौसम की। कहानी काळ के डर की। जमाने का तीसरा महिना यानि की अगस्त। रूई के फाहों से बादल उपड़ आते दोपहरों में और शाम तक लौट जाते बिन बरसे। आस खो चुके किसान और ग्वाळ कातर नज़रों से हर शाम तकते आसमाँ। रेगिस्तान के अंतिम छोर का कोई गाँव। बरस उन्नीस सौ तिहत्तर, या बंजारों की कहानियों की बोली में कहें तो तीसा यानि विक्रम संवत 2030 के दिन। आईनाथ जी के मंदिर में धूंप जल रहा है, पुजारी जी मंदिर से निकलकर अपने घर जा रहे हैं। पुजारी जी जो गाँव के स्कूल में पढ़ाते भी हैं। गांव के लोग खूब मानते माड़साब्ब को। सुबहों को छाछ दोपहरों को केर-सांगरियाँ और रातों में ठंडे पानी के मटके भरकर गाँव के लोग पैरों पर खड़े रहते हर वक्त माड़साब्ब के लिए।

 एक दिन माड़साब्ब मंदिर से निकले ही थे कि गाँव का एक भील काळ से डरा हुआ पुजारी जी को मिल जाता है, गिड़गिड़ाने लगता है गुस्से में। आप कैसे पुजारी हैं जो बारिश नहीं करवा सकते। बता दीजिए अब कब होगी बारिश। पुजारी जी एकदम से चुप्प। पूजा-पाठ, चौघड़िया-बिघड़िया, मुहूर्त तक तो ठीक है अब बारिश कहां से करवा दें। फिर भी बोल दिया कि कुछ दिन बाद होगी बारिश खूब। तब तक में उपवास रखता हूं। अब माड़साब्ब ने बोल तो दिया पर बारिश कहां से करवाएंगे। आईनाथ जी का भोपा माड़साब्ब के एकदम खास आदमी। माड़साब्ब आप भोपे रा खेळा। आते ही पूछा कि मैंने तो ऐसे बोल दिया बारिश का और रख दिया उपवास अब क्या करें। भोपे ने अगरबत्ती जलाकर आखे लिए और हंसते हुए बोला आज से बारिश होने तक मेरा भी उपवास। और ग्यारहवें दिन बारिश होगी।

 दूसरे दिन तेज धूलभरी आंधी शुरू हो गई। स्कूलों की छुट्टियों के दिन। भोपा और माड़साब्ब दोनों सुबह छाछ पीकर पूरा दिन निकाल देते। आठवां दिन चढते-चढते माड़साब्ब के बीछणी होने लगी बादलों का तो कोई नामोनिशान ही नहीं बारिश कैसे होगी। उतरे चेहरे से भोपे को देखा भोपे ने कहा बारिश होगी चिंता मत करो। ग्यारहवें दिन की दोपहर बीतते-बीतते आंधी रुक गई और उमस होने लगी। ओतरे कूंट में काळ्याण उपड़ने लगी और आंधी के साथ तेज बारिश। तीन घंटे बाद बारिश ज्यों ही रुकी सामने की मकान से दादी हाथ में थाली और छाछ का जग भरे निकली। थाली में केर-सांगरी, फुलके और कोळियो। माड़साब्ब ने हंसते हुए आईनाथ जी को धोक दी और बात रखने के लिए धन्यवाद दिया। भोपा आंखें बंद किए बैठा था। पच्चीसे के काळ से डरे किसान और चरवाहे खुश हो गए थे तीन महिनों बाद।

 कहानी खत्म होते-होते दोपहर खत्म होने को थी। चांरे की खिड़की से आती हवा बंजारे को छूती और बंजारा उंघने लगता। आज कहानी सुनने के लिए बंजारा जाने कितने दिनों बाद जागा था दोपहर में।