Wednesday 26 April 2017

था जो खो गया, तेरी अँखियों का अनुरागी

सामने एक लड़का बैठा है जमीन पर, शायद बस के चलने का इंतज़ार कर रहा है। कितना खुश है सामने बैठे दोस्तों से बातें कर रहा है, तैयारी कर रहा होगा कुछ बनने के लिए और घर लौट रहा है।
मन है ना कितना अजीब है। बहुत सपने देखता है। चीज़ों को अपने हिसाब से डिसाइड करता है। ऐसे होगा वैसे होगा और जो हो रहा होता है वो मन का नहीं होता तो भागता है। जैसे बादलों को देखकर मैं पागल हो जाता हूं। आज कितने बादल हैं ना ऊपर। ऐसे लग रहा जैसे मुझे कोई बांध रहा है और मैं भाग रहा हूं रस्सी तोड़कर।
जगहें अपने आप में सुंदर होती हैं क्या या किसी के साथ होने से वो सुंदर हो जाती हैं? मुझे तीन साल तक जयपुर नरक लगता रहा और पिछले एक साल से मैं जयपुर के प्यार में हूं। मैं किसी के साथ उन जगहों पर गया जहाँ उन तीन सालों में नहीं गया था। मुझे लगा इन जगहों को नहीं देखा इसलिए जयपुर नरक लगता रहा। आज मैं अकेले उन सारी जगहों पर गया। लेकिन मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। जैसा किसी के साथ उन जगहों पर होने पर लगा था।
दोस्त कहते हैं कि खुद से प्यार करो। खुद की खुशियाँ खुद में ही हैं फिर मुझे खुद से, अकेले जाने पर ये जगहें क्यों अच्छी नहीं लगी? मैं तो खुद से प्यार भी करने लगा हूं अब।
क्या हर कोई खुद में खोकर खुश रह सकता है? कभी जब सबकुछ खाली-खाली सा लग रहा हो। मन डूब रहा हो तब सबसे बात करने पर भी वैसे ही लगता रहता है। लेकिन कुछ लोग होते हैं गिने-चुने, ज़िंदगी में। उनसे बात करके ऐसे क्यों लगता है कि सबकुछ सही हो गया है। नहीं पता कि मन ऐसी धारणा बना लेता है या सच में वो लोग ही सुकून होते हैं। पर उनसे बात करते हुए ऐसे लगता है जैसे खुद से प्यार हो रहा है। अपनी हर चीज़ सुंदर लगने लगती है, अपनी लम्बी सी नाक, छोटे-छोटे दु:ख सब कुछ।
यही है बस इसी से भागता हूं, इसी से रुकता हूं और इसी में जीना चाहता हूं। और कुछ भी चाहना नहीं।
मैं तो हूं हमेशा, अभी के लिए था जो खो गया, तेरी अँखियों का अनुरागी।